Bihar board 10th Class Sanskrit Chapter 9 स्वामी दयानन्दः

नवमः पाठः

स्वामी दयानन्दः

(आधुनिकभारते समाजस्य शिक्षायाश्च महान् उद्धारकः स्वामी दयानन्दः। आर्यसमाजनामकसंस्थायाः संस्थापनेन एतस्य प्रभूतं योगदानं भारतीयसमाजे गृह्यते। भारतवर्षे राष्ट्रीयतायाः बोधोऽपि अस्य कार्यविशेषः। समाजे अनेकाः दूषिता: प्रथाः खण्डयित्वा शुद्धतत्त्वज्ञानस्य प्रचारं दयानन्दः अकरोत्। अयं पाठ: स्वामिनो दयानन्दस्यपरिचयं तस्य समाजोद्धरंणे योगदानं च निरूपयति।)

(आधुनिक भारत में स्वामी दयानन्द समाज तथा शिक्षा के महान उद्धारक हैं। आर्यसमाज नामक संस्था की स्थापना से भारतीय समाज को इनका बहुत बड़ा योगदान मिला। भारतीय समाज में राष्ट्रीयता का बोध कराना भी इनका विशेष कार्य है। समाज में प्रचलित अनेक दूषित प्रथाओं को दूर कर स्वामी दयानन्द ने शुद्ध तत्त्वज्ञान का प्रचार किया। यह पाठ स्वामी दयानन्द का परिचय देता है तथा समाज के उद्धार में उनके
योगदान का निरूपण करता है।)

1. मध्यकाले नाना कुत्सितरीतयः भारतीयं समाजम् अदूषयन्। जातिवादकृतं वैषम्यम्स्पृश्यता, धर्मकार्येषु आडम्बरः स्त्रीणामशिक्षा, विधवानां गह्हिता स्थितिः, शिक्षायाः अव्यापकता इत्यादयः दोषाः प्राचीनसमाजे आसन्। अतः अनेके दलिताः हिन्दुसमाजं तिरस्कृत्य धर्मान्तरणं स्वीकृतवन्तः। एतादृशे विषमे काले ऊनविंशशतके केचन धर्मोद्धारकाः सत्यान्वेषिणः समाजस्य वैषम्यनिवारकाः भारते वर्षे प्रादुरभवन्। तेषु नूनं स्वामी दयानन्दः विचाराणां व्यापकत्वात्स माजोद्धरणस्य संकल्पाच्च  शिखरस्थानीयः। 

हिन्दी अनुवाद : मध्यकाल में अनेको कुत्सित रीतियों ने भारतीय समाज को दूषित कर रखा था। जातिवाद जनित विषमता, छूआ-छूत, धर्मकार्यों में दिखावापन, स्त्रियों की अशिक्षा, विधवाओं की दयनीय स्थिति, शिक्षा की कमी इत्यादि दोष प्राचीन समाज पें थे। इस कारण अनेक दलित हिन्दू समाज को छोड़कर धर्म परिवर्तन स्वीकर कर रहे थे। उन्नीसवीं शैताब्दी के ऐसे विषम काल में भारतवर्ष में कुछ धर्म-उद्धारक सत्यान्वेषी तथा समाज की विषमता को दूर करने वाले व्यक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ। उनमें विचारों की व्यापकता तथा समाज के उद्धार के संकल्प की महानता के कारण स्वामी दयानन्द सबसे शीर्षस्थान पर हैं।

2. स्वामिनः जन्म गुजरातप्रदेशस्य टंकारानामके ग्रामे 1824 ईस्वी वर्षेऽभूत। बालकस्य नाम मूलशङ्करः इति कृतम्। संस्कृतशिक्षया एवाध्ययनस्यास्य प्रारम्भो जात:।कर्मकाण्डिपरिवारे तादृश्येव व्यवस्था तदानीमासीत्। शिवोपाँसके परिवारे मूलशङ्करस्य कृते शिवरात्रिमहापर्व उद्बोधकं जातम्। रात्रिजागरणकाले मूलशङ्करेण दृष्टं यत्शङ्करस्य विग्रहमारुह्य मूषकाः विग्रहार्पितानि द्रव्याणि भक्षयन्ति। मूलशङ्करो ऽचिन्तयत्य त् विग्रहोऽयमकिञ्चित्करः। वस्तुतः देवः प्रतिमायां नास्ति। रात्रिजागरणं विहाय मूलशङ्करः गृहं गतः। ततः एव मूलशङ्करस्य मूर्तिपूजां प्रति अनास्था जाता। वर्षद्वयाभ्यन्तरे एव तस्य प्रियायाः स्वसुर्निधनं जातम्। ततः मूलशङ्करे वैराग्यभावः समागतः । गृहं परित्यज्य विभिन्नानां विदुषां सतां साधूनाञ्च सङ्गतौ रममाणोऽसौ मथुरायां विरजानन्दस्य प्रज्ञाचक्षुषः विदुषः समीपमगमत् । तस्मात् आकर्षग्रन्थानामध्ययनं प्रारभत। विरजानन्दस्य उपदेशात् वैदिकधर्मस्य प्रचारे सत्यस्य प्रसारे च स्वजीवनमसावर्पितवान्। यत्र-तत्र धर्माडम्बराणां खण्डनमपि स चकार। अनेके पण्डिताः तेन पराजिता: तस्य मते च दीक्षिताः । 

हिन्दी अनुवाद : स्वामी दयानन्द का जन्म गुजरात प्रदेश के टंकारा नामक गाँव में 1824 ई० में हुआ। बालक का नाम मूलशङ्कर रखा गया। संस्कृत शिक्षा से ही अध्ययन का आरंभ हुआ। उस समय कर्मकाण्ड प्रधान परिवार में वैसी ही व्यवस्था थी। शिवोपासक परिवार में महाशिवरात्रि का पर्व मूलशङ्कर के लिये प्रेरणादायक हुआ। रात्रि जागरण के समय मूलशङ्कर ने देखा कि चूहे शिवमूर्ति पर चढ़कर मूर्ति पर चढ़ाये गये खाद्य पदार्थों को खा रहे हैं। मूलशङ्कर ने सोचा कि यह मूर्ति तुच्छ है वस्तुतः देवता प्रतिमा में नहीं हैं। रात्रिजागरण छोड़कर मूलशङ्कर घर चले गये। उसके बाद ही
मूलशङ्कर की मूर्ति पूजा के प्रति अनास्था हो गयी। दो वर्ष के भीतर ही उनकी प्रिय बहन का निधन हो गया। उसके पश्चात् मूलशङ्कर में वैराग्य भाव का जन्म हुआ। घर परित्याग कर विभिन्न विद्वान सज्जनों एवं साधुओं की सङ्गति में इधर-उधर घूमते हुए मथुरा के अन्धे विद्वान विरजानन्द के पास आये। उनसे आर्षग्रंथों  का अधायन आरम्भ किया। विरजानन्द के उपदेश से उन्होंने वैदिकधर्म के प्रचार और सत्य के प्रसार मे 
अपना जीवन समर्पित कर दिया। जहाँ-तहाँ उन्होंने धर्म-आडम्बर का खण्डन किया। अनेक विद्वान पंडित उनके  द्वारा पराजित होकर उनके मत में दीक्षित हो गये।

3. स्त्रीशिक्षायाः विधवाविवाहस्य मूर्तिपूजाखण्डनस्य अस्पृश्यतायाः बालविवाहस्य च निवारणस्य तेन महान् प्रयासः विभिन्नैः समाजोद्धारकै: सह कृतः। स्वसिद्धान्तानां सङ्कलनाय सत्यार्थप्रकाशनामकं ग्रन्थं राष्ट्रभाषायां विरच्य स्वानुयायिनां स महान्तमुपकारं चकार। किञ्च वेदान् प्रति सर्वेषां धर्मानुयायिनां ध्यानमाकर्षयन् स्वयं वेदभाष्याणि संस्कृतहिन्दीभाषयोः रचितवान्। प्राचीनशिक्षायां दोषान् दर्शयित्वा नवीनां शिक्षां पद्धतिमसावदर्शयत्। स्वसिद्धान्तानां कार्यान्वयनाय 1875 ईस्वी वर्षे मुम्बईनगरे आर्यसमाजसंस्थायाः स्थापनां कृत्वा अनुयायिनां कृते मूर्त्रूपेण समाजस्य संशोध नोद्देश्यं प्रकटितवान् । 

हिन्दी अनुवाद : विभिन्न समाजसुधारकों के साथ स्त्रीशिक्षा, विधवाविवह तथा मूर्तिपूजाखण्डन का तथा छूआ-छूत और बालविवाह दूर करने का उनके द्वारा महान प्रयास किया गया। अपने सिद्धान्तों के सङ्कलन के लिये सत्यार्थप्रकाश नामक ग्रंथ अपने राष्ट्रभाषा में रचकर अपने अनुयायियों का उन्होंने महान उपकार किया। और वेदों प्रति सभी धर्मों के अनुयायियों का ध्यान आकर्षित करने के लिये स्वयं वेदों का भाष्य हिन्दी भाषा में रचा। प्राचीन शिक्षा के दोषों को दिखाकर उन्होंने नवीन शिक्षापद्धति को लोगों के सामने रखा। अपने सिद्धान्तों को कार्यरूप में लाने हेतु 1875 ई० में मुम्बई नगर में ‘आर्यसमाज’ नामक संस्था की स्थापना कर अनुयायियों के लिए  मूर्तरूप में समाज के बदलाव का उद्देश्य प्रकट किया।

4. सम्प्रति आर्यसमाजस्य शाखा: प्रशाखाश्च देशे विदेशेषु च प्रायेण प्रतिनगरं वर्तन्ते । सर्वत्र समाजदूषणानि शिक्षामलानि च शोधयन्ति। शिक्षापद्धतौ गुरुकलानां डी०ए० वी० (दयानन्द एंग्लो वैदिक) विद्यालयानाञ्च समूहः स्वामिनो दयानंदस्य मृत्योः  ( 1883 ईस्वी) अनन्तरं प्रारब्धः तदनुयायिभिः वर्तमानशिक्षापद्धतौ प्रवर्तने  च दयानंदस्र्य समाजस्य च योगदानं सदा स्मरणीयमस्ति।

इस समय आर्यसमाज़ -की शाखाएँ और उपशाखाएँ देश औरविदेशों में प्रायः प्रत्येक नगरं में स्थांपित हैं (जो) सब जगह समाज के दोषों तथा शिक्ष की विकृति को दूर करने का प्रयास करते हैं। शिक्षापद्धति में उनके अनुयायियों द्वारा उनकी मृत्यु के बाद गुरुकुलों और डी.ए.वी. (दयानन्द एंग्लों वैदिक) विद्यालयों के समूह का आरम्भ किया गया। वर्तमान शिक्षापद्धति और समाज के बदलाव में दयानन्द
तथा आर्यसमाज का योगदान सदा स्मरणीय है।

         सारांश

मध्यकाल में भारतीय समाज अनेकों कुरीतियों से दूषित था। दलित समुदाय के लोग हिन्दू समाज छोड़कर अन्य पन्थों को अपना रहे थे। ऐसी विषमपरिस्थिति में उन्नीसवीं शती में भारत में कुछ धर्मोद्धारक, विषमता दूर करने वाले महापुरुषों का
उदय हुआ। उनमें स्वामी दयानन्द का स्थान सर्वोपरि है।
स्वामी दयानन्द का जन्म 1824 ई० में गुजरात प्रदेश के टंकारा नामक गाँव में हुआ था। इनका मूल नाम मूलशङ्कर था। एक बार शिवरात्रि के महोत्सव में इनका रात्रिजागरण था। उन्होंने ने देखा कि एक चूहा मूर्ति पर चढ़कर चढ़ाये हुए पदार्थों को खा रहा था। उन्होंने विचार किया कि प्रतिमा में देव या ईश्वर नहीं होते। उनकी र्तिपूजा में अनास्था हो गयी। दो वर्ष के भीतर ही उनकी प्रिय बहन का देहान्त हो गया। उनके भीतर वैराग्य भाव जाग्रत हुआ। घर का परित्याग कर संतों के साथ विचरणकरते मथुरा मथुरा के प्रज्ञाचक्षु विद्वान विरजानन्द से  ध्ययन आरम्भ किया। अध्ययनोपरान्त विरजानन्द के उपदेश से उन्होंने अपना जीवन वैदिक धर्म के प्रचार तथा सत्य के प्रसार में समर्पित कर दिया। अस्पृश्यता एवं बालविवाह निवारण हेतु उन्होंने महान प्रयास किया । अपने सिद्धान्तों के संकलन हेतु उन्होंने ‘सत्यार्थप्रकाश’ नामक पुस्तक की रचना वेदों का भाष्ये लिखा तथा 1875 ई० में ‘आर्यसमाज’ नामक संस्था की स्थापना की। वर्तमान में आर्यसमाज की शाखा देश, विदेश के प्राय: प्रत्येक नगर में है उनके मरणोपरान्त उनके शिष्यों द्वारा दयानन्द ऐंग्लों वैदिक (D.A.V.) विद्यालयों के समूह की स्थापना हुई । वर्तमान शिक्षा पद्धति तथा समाज में किये परिवर्तन हेतु, स्वामी दयानन्द सदा ही याद किये जायेंगे ।

             अभ्यास: (लिखितः )

1. अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत-

(क) मध्यकाले का: भारतीयं समाजम् अदूषयन्?

(ख) के हिन्दुसमाजं तिरस्कृत्य धर्मान्तरणं स्वीकृतवन्त?

(ग) स्वामिनः दयानन्दस्य जन्म कुत्र अभवत्?

(घ) विग्रहार्पितानि द्रव्याणि के भक्षयन्ति?

(ङ) रात्रिजागरणं विहाय मूलशङ्करः कुत्र गत:?

उत्तर- 

(क) मध्यकाले कुत्सितरीतय: भारतीय समाजम् अदूषयन्।

(ख) अनेके दलिताः हिन्दुसमाजं तिरस्कृत्य धर्मान्तरणं स्वीकृतवन्तः।
(ग) स्वामिन: दयानन्दस्य जन्म गुजरातप्रदेशस्य टंकारानामके ग्रामे अभवत्।
(घ) विग्रहार्पितानि द्रव्याणि मूषका: भक्षयन्ति।
(ड़) रात्रिजागरणं विहाय मूलशङ्करः गृहं गतः।

2 Comments

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