संस्कृत उच्चारण स्थान सूत्र PDF

 संस्कृत उच्चारण स्थान सूत्र PDF

बहुत सारे कॉम्पिटेटिव में वर्णों के उच्चारण स्थान पूछे जाते हैं जिसमें आपको समस्याएं आती है और आप उच्चारण स्थान को सही से नहीं जान पाते हैं तो हम नीचे आपको पीडीएफ उपलब्ध करा रहे हैं जिसमें  उच्चारण से संबंधित सूत्र दिए गए हैं जिसकी सहायता से आप वर्णों के उच्चारण स्थान आसानी से जान पाएंगे ।

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वर्णों के उच्चारण स्थान सूत्र 

अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः-  

अ, आ, कवर्ग और विसर्ग का कण्ठ-स्थान है । अत: ये कण्ठ्य हैं।

इचुयशानांं तालु- 

इ, ई, चवर्ग, य और श का तालु-स्थान है । ये तालव्य है ।

ऋटुरषाणां – 

मूर्धा-ऋ, ऋ, टवर्ग, र और ष का मूर्धा-स्थान है । ये मूर्धन्य हैं ।

लृतुलसानां दन्ताः-

 लृ, लू, तवर्ग, ल और स का दन्त-स्थान है । ये दन्त्य हैं ।

उपूपध्मानीयानाम् औष्ठी-

उ, ऊ, पवर्ग उपध्मानीय अर्थात् प, फ का ओष्ठ-स्थान
हैं। ये ओष्ठ्य हैं ।

ञङणनां नासिका च-

ञ, म, ङ, ण और न का नासिका-स्थान है । अत: ये अनुनासिक है । 

एदैतोः कण्ठ- तालु –

ए और ऐ का कण्ठ-तालु स्थान है ।

 ओदैतोः कण्ठोष्ठम् – 

ओ और  औ का कण्ठ-ओष्ठ्य स्थान है ।

वकारस्थ दन्त्याष्उम्-

व का दन्त-ओष्टठ स्थान है ।

प्रयत्न-विचार

वर्णों के उच्चारण के लिए कण्ठ-तालु आदि उच्चारण यन्त्रों से जो क्रिया की जाती है, उसे प्रयत्न कहते हैं । 

वर्णों के उच्चारण के अधार पर भेद 

प्रयत्न दो प्रकार के होते हैं- आभ्यन्तर और बाह्य ।

आभ्यन्तर प्रयत्न

ध्वनि उत्पन्न होने के पहले वागिन्द्रय द्वारा जो प्रयत्न किया जाता है उसे आभ्यन्तर प्रयत्न कहते हैं। आभ्यन्तर प्रयत्न के पाँच भेद हैं-

१. स्पृष्ट-सभी स्पर्श- 

वर्णों (क से म तक) का स्पृष्ट प्रयत्न होता है । इसके उच्चारणके साथ वागिन्द्रिय के उच्चारण-स्थान का स्पर्श होता है ।

२. ईषत्-स्पृष्ट-

अन्तःस्थ वर्णों का ईषत्-स्पृष्ट प्रयत्न होता है । य, र,ल, व का स्वर और व्यञ्जन का मध्यवर्ती होने से अन्तःस्थ कहते हैं । इसमें वागिन्द्रिय कुछ बन्द रहती है ।

३. विवृत-

सभी स्वर-वर्णों का विवृत प्रयत्न होता है । इसमें वागिन्द्रिय खुली रहती है ।

४. ईषत्-विवृत-

उष्म-वर्णों का (श, ष, स, ह) ईषत्-विवृत प्रयत्न होता है । इसमें वागिन्द्रिय कुछ खुली रहती है ।

५. संवृत-

हस्व अकार का संवृत प्रयत्न होता है ।

बाह्य प्रयत्न 

बाह्य प्रयत्न उच्चारण के अन्त के प्रयत्न को बाह्य प्रयत्न कहते हैं। इसके आठ भेद हैं-विवार, संवार,
श्वास, नाद, अर्घोष, घोष, अल्पप्राण और महाप्राण 

(क) विवार, श्वास और अघोष-

वर्गों का प्रथम तथा द्वितीय वर्ण अर्थात् क, ख. च. छ, ट, ठ, त, थ, प, फ तथा श, ष और स ये अघोष होते हैं। इनके उच्चारण में केवल श्वास है का योग होता है इसलिए इनकी श्वास-संज्ञा भी है । इनके उच्चारण के समय कण्ठ खुला रहता
– विवार भी कहा जाता है ।

(ख) संवार, नाद और घोष-

शेष व्यञ्जन तथा सभी स्वर, घोष कहे जाते हैं । इसके उच्चारण में नाद का योग होता है तथा कण्ठ मुँदा रहता है । अत: इन्हें संवार और नाद भी कहते हैं।

(ग) अल्पप्राण और महाप्राण –

जिन वर्णों के उच्चारण में कम श्वास या प्राण-वायु लगे, उन्हें अल्पप्राण कहते हैं। जिनके उच्चारण में अधिक प्राण- वायु का प्रयोग किया जाता है, उन्हें महाप्राण कहते हैं । साधारणत: जिन व्यञ्जनों में हकार की ध्वनि सुनाई पड़ती है, उन्हें महाप्राण तथा अन्य को अल्पप्राण कहते हैं । अन्त:स्थ अल्पप्राण हैं और उष्म वर्ण महाप्राण । वर्गों का द्वितीय और चतुर्थ वर्ण महाप्राण होता है । रोमन लिपि में इनके लिए h जोड़ना पड़ता (kh), घ (gh), छ (chh), ध (dh) इत्यादि । संयुक्त व्यञ्जन-जब दो व्यंजन वर्णों के बीच में स्वर वर्ण न रहे तब उन्हें संयुक्त व्यंजन कहते हैं । प्रमुख संयुक्त व्यंजन निम्नलिखित है 

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