mangalam path sanskrit class 10

⇥मङ्गलम् (कल्याणकारा)

पाठ-परिचय-प्रस्तुत पाठ ‘मङ्गलम्’ में पाच  शलोक विभिन्न उपनिषटी से संकलित है। इन श्लोकों द्वारा सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापक, संसार के आधार, सभी कालो में  विद्यमान रहने वाले सत्यस्वरूप ईश्वर की वंदना की गई है। उषनिषद वैदिक वाडूमय  के अन्तिम भाग में दार्शनिक सिद्धान्तों को प्रकट करते हैं । इन उपनिषटी मे परम् पिता परमेश्वर की महत्ता का गुणगान किया गया है उसी महान ईश्वर के द्वारा इस संसार
का संचालन होता है। उपनिषद् शब्द ‘उप’ तथा ‘निषद’ दो शब्दों के योग से बना है । उप’ का अर्थ होता है-नजदीक तथा ‘निषद्’ का अर्थ होता है–उपदेश। गुरु के समाप शांतचित्त बैठकर अविद्यानाशक पापविमुक्ति तथा ब्रह्मत्ञान संबंधी जो सद्त्ञान सुना म, उसे उपनिषद कहते है। तात्पर्य कि उपनिषटों में आदर्श जीवन संबंधी ज्ञान वाणित हैं। जिसमें व्यक्ति को निरपेक्ष भाव से कर्म करने, सुख-दख, लाभ-हानि, मान-अपमान आदि नाशवान् है। सिर्फ ईश्वर ही सत्य है। जीव का उद्धार तभी होता है जब व्यक्ति अपने सदाचरण द्वारा नदी की भाँति ब्रह्मरूपी महासमृद्र में मिलकर एकाकार ही जाता है।

1. हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।

    तत्त्वं पूषन्नापावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।।

अन्वय- हे पूषन् ! सत्यस्य (ऋतस्य) मुखम् (द्रारम्) स्वर्णमयेन पात्रेण (आवरणेन) अपिहितं (भवति), तत् सत्यवर्माय दृष्टये (उपलब्धये) अपावृणु (अपसारव)।

शब्दार्थ-

हिरण्मयेन = सोने-सा। पात्रेण = आवरण से, ढक्कन से । सत्यस्य = सत्य
का । अपिहितं = ढका हुआ। मुखम्= मुख, द्वार । तत् = उस  त्वं= तुम । पूरषन = विद्वान । अपावृणु = त्याग करे। सत्यधर्माय = सत्य धर्मवान् के लिए । दृष्टये = प्राप्ति के लिए ।
अर्थ-हे प्रभो! सत्य का मुख (भी) सोने जैसे पात्र से ढका हुआ है, इसलिए उस सत्य धर्म की प्राप्ति के लिए (मन से माया-मोह) को त्यागकर दें, तभी सत्य की प्राप्ति संभव है ।

व्याख्या-

प्रस्तुत श्लोक ईशावस्य उपनिषट’ से संकलित तथा ‘मद्गलम्’ पाठ से उद्धृत है। इसमें सत्य के विषय में कहा गया है कि सांसारिक मावा-मोह के वशीभूत होने के कारण विद्वान भी उस सत्य की प्राप्ति नहीं कर पाते हैं, क्योंकि सांसारिक चकाचौध में वह सत्य इस प्रकार ढंक जाता है कि मनुष्य जीवन पर्यन्त अनावश्यक भटकता रह जाता है। इसलिए ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि हे प्रभो ! उस माया से मन को हटा दो, ताकि परमपिता परमेश्वर से साक्षात्कार हो सके। अरथात् जीव प्रभु का दर्शन पाकर जीवन-मरण के फंदे से मुक्त हो सके।

2. अणोरणीयान् महतो महीयान् 

आत्मास्य जन्तोनिहितो गुहायाम् ।

तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः ॥

शब्दार्थ-

अणो = अणु से, सूक्ष्म से। अणीयान् = सुक्षम, अणु । महत महर । महीयान् = महान् । आत्मास्य = आत्मा का । जन्तोः = प्राणी के । निहितः नि ।
गुहायाम् = हृदय रूपी गुफा में। तम् =उसको । वीतशोकः = शोक रहित ।

अर्थ-

जीव के हृदय रूपी गुफा में अणु से भी सूक्ष्म तथा महान् से महान् भह आता विद्यमान रहती है। उस परम सत्य के दर्शनमात्र से (जीव) शोकरहित होकर परमात्मा एकाकार हो जाता है।

व्याख्या-

प्रस्तुत श्लोक कठोपनिषद से संकलित तथा ‘मङ्गलम्’ पाठ से उद्धृत है। इसमें आत्मा के स्वरूप एवं निवास के विषय में बताया गया है। विद्वानों का कहना है कि आत्मा मनुष्य हृदय में सूक्ष्म से भी सूक्ष्म तथा महन सामहान रूप में स्थित है। जब जीव शोकरहित होकर अर्थात् सांसारिक माया-मीह का त्यागकर हृदय-स्थित आत्मा (सत्य) से साक्षात्कार करता है तब उसकी आत्मा महान परमात्मा में मिल जाती है और जीव सारे सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाता है। इसीलिए स्तोता-परम सत्य प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे प्रभो! हमें उस दिव्य प्रकाश से आलोकित करो कि हम शोकरहित होकर अपने-आपको उस महान् परमात्मा म एकाकार
कर सकें।

3. सत्यमेव जयते नानृतं 

सत्येन पन्था विततो देवयानः ।

येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा 

यत्र तत् सत्यस्य परंनिधानम्।।

शब्दार्थ–

एव = ही। जयते = जीत होती है । अनृतं = झूठ, असत्य । न = नहीं। सत्येन = सत्य से, के द्वारा। पन्थाः = मार्ग, रास्ता । विततः = विस्तीर्ण होता है देवयान: = देवताओं का। येन = जिसके द्वारा। आक्रमन्ति = आक्रमण करता है, प्रयत्न करता है।

अर्थ-

सत्य की ही जीत होती है, असत्य (झूठ) की नहीं । सत्य से ही परमपिता परमेश्वर तक पहुँचने का मार्ग विस्तृत होता है, जिसके द्वारा क्षिगण उस परमात्मा को प्राप्त करना चाहते हैं अर्थात् अपने आत्म कल्याण के लिए जिस सत्य मार्ग का ऋषि अनुसरण करते हैं, वही सत्य ईश्वर तक पहुँचने का सच्चा मार्ग है।

व्याख्या – 

प्रस्तुत श्लोक ‘मुण्डकोपनिषद्’ से संकलित तथा ‘मङ्गलम्’ पाठ से उद्धृत है। इसमें सत्य के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। ऋषियों का संदेश है कि संसार में सत्य की ही जीत होती है, असत्य या झूठ की नहीं । तात्पर्य यह कि ईश्वर की प्राप्ति सत्य की आराधना से होती है, न कि सांसारिक विषय-वासनाओं में डूबे रहने से होती है। संसार माया है तथा ईश्वर सत्य । इसलिए ऋषियों ने अपने उद्धार या आत्मकल्याण के लिए उस परम सत्य के मार्य का अनुसरण किया है, जिसके वे और जीव योनि से मुक्ति पाने में सफल होते है । अत: और जब तक उस सत्य मार्ग का है। अतएव उस सत्य की प्राप्ति के लिए जीव को अनासक्त भाव से कर्म करना चाहिए ।  क्योकि सिर्फ ईंश्वर ही सत्य है, इसके अतिरिक्त सब कुछ असत्य है । गीता में औीकृषण ने कहा है- सत्य केवल मै हूँ मेरे अतिरिक्त सब असत्य है।

4. यथा नडः स्थन्दमाना: समुद्रेऽस्ते गच्छन्ति नामरूपे विहाय।

तधा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः परात्परे पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।

शब्दार्थ –

 यथा= जिस प्रकार । नद्यः = नदियाँ । स्यन्दमानाः = बहती हुई। समुद्रेऽस्तं = समुदर में विलीन हो जाती हैं। नाम रूपे = नाम एवं रूप। विहाय= त्यागकर। तथा = उसी
पकार। विद्ान्= ज्ञानी। नामरूपाद्= नाम एवं रूप से। विमुक्त = त्याग कर । परात्परं= परमेश्वर । उपैति = पाकर।
अर्थ-जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ समुद्र में मिलने के बाद अस्तित्वहीन हो जाती हैं अर्थात् अपना रूप त्यागकर समुद्र बन जाती हैं, उसी प्रकार विद्वान परमपिता परमेश्वर
के दिव्य प्रकाश में मिलते ही अपने नाम- रूप से मुक्त हो जाते है ।

व्याख्या-

प्रस्तुत श्लोक मुण्डकोपनिषद्’ से संकलित तथा ‘मङ्गलम्’ पाठ से उदधुत है। इसमें जोव एवं आत्मा के बीच संबंध का विवेचन किया गया है। पद्यकार कषि का कहना है कि जिस प्रकार प्रवाहित नदियों समुद्र का आकार ग्रहण कर लेती है, उसी प्रकार विद्वान् ईश्वर के दिव्य प्रकाश में मिलकर जीव योनि से हो जाता है। तात्पर्य यह कि नदियों की भाँति जीव जब सांसारिक माया-मोह को त्यागकर प्रभु के दिव्य आलोक से आलोकित होता है तब जीव रूप से मुक्ति पाकर सत्य रूप धारण कर लेता है। गीता के ग्यारहवें अध्याय में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा था कि हे केशव ! जिस प्रकार नदियों का जल समुद्र में मिलते ही समुद्र जल में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार वीर आपके मुख में प्रवेश करते हुए विलीन हो जाते है। जीव तभी तक मायाजाल में लिपटा रहता है जब तक उसे आत्म-ज्ञान नहीं होता है। आत्म-ज्ञान होते हो
जीव योनि से मुक्ति पा जाता है।

5. वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् आदित्यवर्ण तमसः परस्तात्त   तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पश्था विद्यतेऽयनाय ।।

शब्दार्थ-

अहम् = मैं। तमस: = अंधकार, अज्ञान । परस्तात् = पृथक् । आदित्यवर्णम् – आदित्यवर्ण सूर्य । महान्तं = श्रेष्ठ । तम् = उनको । विदित्वा = जानकर । अत्येति = पर कर जाता हूँ। एतस्मात् = इसलिए । अन्यः = कोई दूसरा । पन्थाः =मार्ग । विद्यते = जान पड़ता है।

अर्थ-

वेद आदित्यवर्ण सूर्य के समान दिव्य रूप में विराजमान हैं । ज्ञानीजन उसका साक्षात्कार करके अर्थात् उस प्रकाशपूर्ण दिव्य स्वरूप वेदरूप ब्रह्म का ध्यान करके मृत्यु पर विजय प्राप्त करते हैं, (क्योंकि) इसके अतिरिक्त कोई अन्य रास्ता नहीं है।

व्याख्या – 

प्रस्तुत श्लोक ‘श्वेताश्वतरोपनिषद्’ से संकलित तथा ‘मङ्गलम्’ पाठ से उद्धृत है। इसमें वेदस्वरूप परमपिता परमेश्वर के विषय में कहा गया है। ऋषियों का मानना है कि ईश्वर ही प्रकाश का पुंज है । उन्हीं के दिव्य आलोक से सारा संसार आलोकित होता है। ज्ञानीजन उस वेदस्वरूप परंबरह्म का साक्षात्कार
करके सांसारिक विषय-वासनाओं से मुक्ति पाते हैं। वेदों ने उसी आदित्यवर्ण सूर्य के समान दिव्यप्रकाश वाले प्रभु का गुणगान किया है। ज्ञानीजन अर्थात् ऋषि उस सत्य सनातन परमब्रह्म के रहस्य को जानकर अपना अनुभव प्रकट करते है तथा मृत्यु पर विजय पाते हैं। गीता भी इस बात को स्वीकार करती है कि प्रभु का प्रकाश पाकर ही सच्चे ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसलिए इस दिव्य पुरुष के गुणगान करके अथवा
आत्मज्ञान के बिना मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। अतः केवल ईश्वर ही सत्य है, शेष सभी असत्य हैं। 

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